Friday, September 16, 2011

बारिश

आसमान को और गहेरा बनाती है,
पेड-पोधों को और हरा बनाती है,
सुखी बेज़बान धरती मे जान डाल देती है,
जबही बारिश मेरे आंगन आती है

कमरे के खिडकी पे घोंसला जो देखा था,
घंटो चिडिया का इंतज्ञार भी किया था,
अब सारा दिन पर सुखाती नज्ञरबंद रहेती है,
जबही बारिश मेरे आंगन आती है

हर दिन चुल्हे से आंख चुराती थी,
गरम-तीखा नमकीन एक आंख ना भाती थी,
अब मन करारे पकोडे और चाय की चुस्की में अटकाती है,
जबही बारिश मेरे आंगन आती है

दिमाग पे जेसे ताला लगा था,
विचारो को जेसे तपते सुरज ने जकडा था,
अब विचारो के साथ कलम से स्याही भी बहेती है,
जबही बारिश मेरे आंगन आती है

वो आंसू जो तकिये मे सुख चुके थे,
वो हंसी जो आंचल मे बांध रखी थी,
बुंदो के छुते ही, यांदो को जीवीत कर जाती है,
जबही बारिश मेरे आंगन आती है

यों तो यह साल के मध्य मास मे आती है,
पर हर शुरूआत को अंत और अंत को शुरूआत दे जाती है,
जबही बारिश मेरे आंगन आती है

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